दक्षिण के राज्यों में हमेशा से जमीन तलाश रही बीजेपी आज जो भी फसल काट रही है उसमे सबसे बड़ा योगदान किसी का है तो वो निश्चय ही अनंत कुमार का रहा है. जनता के बीच में वो कितने लोकप्रिय थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता कि लगातार वो 6 (1996, 1998, 1999, 2004, 2009 और 2014) बार सांसद रहे. वहीँ उनके राजनीतिक कद का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि वो हमेशा से ही केंद्र के करीबी रहे हैं चाहे सरकार में अटल जी हो या नरेंद्र मोदी. इसके साथ ही आडवानी जी के साथ उनकी करीबी किसी से छुपी नहीं है. निःसंदेह ही बंगलौर की राजनीति में सितारे की तरह चमकने वाले अनंत कुमार के जाने के बाद उनका स्थान लम्बे समय तक रिक्त रहेगा.
उत्तर भारत और दक्षिण की राजनीति में बने सांस्कृतिक पुल
वैसे दो दक्षिण की राजनीति में तमाम बड़े नेता हुए लेकिन उनका वर्चस्व दक्षिण तक ही सीमित रह गया. लेकिन अनंत कुमार इस मामले में सबसे आगे थे और इसका एक मुख्य कारण था हिंदी पर उनकी मजबूत पकड़. हिंदी जानने के कारण अनंत कुमार ने उत्तर भारत की राजनीति में भी बराबर दखल रखी. इतना ही नहीं दोनों राज्यों के बीच सांस्कृतिक महत्वों को भी बरक़रार रखा. वहीं अनंत कुमार ने यह भी साबित किया है कि उन्हें अपनी मातृभूमि और मातृभाषा से भी बेहद लगाव है. ज्ञात हो कि अननत कुमार पहले ऐसे नेता हैं जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंच संयुक्त राष्ट्र में क्षेत्रीय भाषा 'कन्नड़' में बड़ी ही बेबाकी से भाषण दिया.
दृढ़इच्छाशक्ति के धनी
ये उनकी इछाशक्ति ही है कि 1987 में बीजेपी के युवा मोर्चे के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद 1996 में बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव तक बन गए. वहीं आपातकाल के समय इंदिरा गाँधी के विरोध के लिए उन्हें 30 दिनों तक जेल में भी बिताना पड़ा था. आरएसएस के विचारों से सर्वाधिक प्रभावित होकर अनंत कुमार ने 1985 में ही ABVP ज्वाइन कर ली जहाँ उन्होंने पहले प्रदेश सचिव और फिर राष्ट्रीय सचिव का कार्यभार संभाला. इन सब से अलग 1998 से ही अनंत कुमार अपनी मां गिरिजा शास्त्री की याद में ‘अदम्य चेतना’ नाम से एक एनजीओ चला रहे हैं जहाँ लगभग 2 लाख से अधिक बच्चों को मिड-डे मील के तहत खाने की व्यवस्था की जाती है.
विवादों में भी आया नाम
बंगलौर में एक तरफ जहाँ बीजेपी की जड़े ज़माने में अनंत कुमार ने कोई कशर नहीं छोड़ी वहीं कर्नाटक के दिग्गज नेता येदुरप्पा के साथ उनकी प्रतिद्वंदिता किसी से छुपी नहीं है. कहा तो यहाँ तक जाता है कि इसी प्रतिद्वंदिता का नतीजा था कि कर्नाटक बीजेपी में दो फाड़ हो गए और अंत में येदुरप्पा को बीजेपी तक छोड़नी पड़ी. हालाँकि मोदी सरकार में जहां एक तरफ येदुरप्पा की वापसी हुई तो दूसरी तरफ अनंत कुमार बीजेपी के पूर्व दिग्गज नेताओं की तरह प्रधानमंत्री मोदी के प्रिय भी बने. जहाँ तक राजनीति की बात है तो यहाँ किसी का भी दामन कहाँ दागों से बच पाता है. राजनीति में दोषारोपण तो चलता रहता है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि बेंगलौर की राजनीति में अनंत कुमार के रूप में हुई क्षति का भरपाई मुश्किल है.
-विंध्यवासिनी सिंह
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