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women empowerment, hindi article (pic: Catch Hindi) |
ये सच है कि हर इंसान को सोचने और व्यक्त करने के आज़ादी होनी चाहिए, लेकिन वहीँ जब हम अपना सोचा हुआ व्यक्त करते हैं तो समाज पर उसका क्या असर पड़ता है, ये अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा होनी चाहिए. जी हाँ हम जो भी व्यक्त कर रहे हैं क्या वो हमारे संस्कार, सामाजिक रिश्तों और आने वाली पीढ़ियों के लिए उचित माहौल दे पायेगा? खास कर जब मुद्दा महिलाओं से सम्बंधित हो तो विशेष ध्यान रखना पड़ता है. अभी हालिये में सेंसर बोर्ड( सीबीएफसी) ने फिल्म 'लिपस्टिक अंडर माई बुर्का' नामक फिल्म को यह कहते हुए प्रमाणपत्र देने से मना कर दिया है कि यह फिल्म महिला उन्मुखी और जीवन के बारे में उनकी कल्पना को लेकर है, उसमें यौन दृश्य, अपशब्द, आडियों पॉर्नोग्राफी और समाज के एक विशेष वर्ग के बारे में थोड़ी संवेदनशील चीजें हैं और इसलिए फिल्म को नियमों के तहत प्रमाणित करने से इनकार कर दिया गया. हालाँकि ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड में बोल्ड फ़िल्में नहीं बनती और अभी तो एक लहर सी चली है बिना अंतरंग दृश्यों के कोई फिल्म आती ही नहीं मगर फिर भी सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को प्रमाण न देने का निर्णय कर विवाद को जन्म दे दिया है. तो वहीँ इस फिल्म की महिला डाइरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव ने कहते हुए मोर्चा खोल दिया है कि मेरी फिल्म को प्रमाण -पत्र नहीं देना महिला अधिकारों पर हमला है. अच्छा लगता है जब कोई महिला अधिकार की बात करता है और उसके लिए लड़ने को भी तैयार रहता है. खास कर फिल्म मेकर्स, क्योंकि फिल्मों का जितना प्रभाव हमारे समाज में है शायद ही किसी और माध्यम का हो.
सच भी है कि फिल्में समाज का आईना होती हैं पहले के समय में भी फिल्मों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों के मुद्दों को उठाया जाता था. वर्तमान समय में भी फ़िल्में बेहतरीन माध्यम हैं कुरीतियों और अहम् मुद्दों को उठाने और उन्हें समाज के सामने लाने का. और अगर महिला सशक्तिकरण के मुद्दों को कहानी के माध्यम से लोगों के बिच लायी जाये तो निःसन्देह ही लोग इससे प्रेरणा लेंगे. अभी हाल ही में आमिर खान ने फिल्म 'दंगल' के माध्यम से लड़कियों के पक्ष में जबरदस्त मैसेज दिया समाज को और लोगों ने भी इस फिल्म को हाथों -हाँथ लिया था. मगर इन सबके बीच कहीं ना कहीं सस्ती लोकप्रियता और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर गैरजरूरी चीजों को पर्दो पर दिखाने की होड़ सी मची हुई है. अगर हम इसी फिल्म के बारे में बात करें तो इस फिल्म में दिखाया गया है की अलग-अलग उम्र की 4 औरतें जो अपनी घिसी पिटी जिंदगी के खिलाफ खड़ी होना चाहती हैं. फिल्म में कोंकणा एक दुखी हाउसवाइफ के किरदार में नजर आ रही हैं जो कि तीन बच्चों की मां हैं. वहीं रतना पाठक 55 साल की विधवा का रोल अदा कर रही हैं जिसकी जिंदगी में एक बार फिर जैसे जवानी की बहार आ गई है, बाल सफेद हो चुके हैं लेकिन फोन पर रोमांस के पलों की वजह से जैसे उसके दिलो दिमाग पर जवानी का मंजर छा गया है. अहाना कुमरा एक ब्यूटीशन के किरदार में है जो अपने प्यार के साथ छोटे शहर से भाग जाना चाहती है. एक्ट्रेस प्लबीता एक कॉलेज गर्ल की भूमिका में है जो एक पिछड़े माहौल से आती हैं लेकिन उसका सपना एक पॉप सिंगर बनना है. हालाँकि यह फिल्म अभी रिलीज़ नहीं हुयी है मगर इसके ट्रेलर को देख कर आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि इस फिल्म में अहम् मुद्दा सेक्स ही है. एक तीन बच्चों की माँ जो गैर मर्द से सेक्स चाहती है वहीँ एक 55 साल की महिला एक नौजवान के साथ रंगीन बातें कर के खुश है. बाकि दो महिलाओं की भी उन्मुक्तता ही दिखाया गया है.
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women empowerment, hindi article (pic: Indiatimes.com) |
हम औरतों को इस बात का बड़ा दुःख होता हैं जब कोई मर्द ये कहता है कि औरतें सिर्फ सेक्स करने और बच्चा पैदा करने के लिए होती है, दुःख होना भी चाहिए क्योंकि ये सरासर गलत है और ओछी मानसिकता को दर्शाता है. आज जब तमाम बंधनों और कठिनाईओं के बीच महिलाएं अपने आप को हर एक फिल्ड में प्रूभ कर रहीं हैं तो ऐसे में ऐसी बातों का कोई तुक ही नहीं बनता. मगर सवाल ये उठता है कि हम भी तो वही कहना चाह रहे हैं फिर उन मर्दों और हम औरतों में क्या फ़र्क़ है?. सेक्स को एक बड़ी समस्या बता कर उसे नारी अधिकार से जोड़ना ठीक नहीं है, क्योंकि अगर हम अधिकारों की बात करें हमारे देश में महिलाएं अभी भी अपने बेसिक जरूरतों के लिए जूझ रही हैं. उन्हें शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार और सम्मान जैसे चीजों के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है. ऐसे में सेक्स एक छोटा सा हिस्सा जरूर हो सकता है किन्तु पूरा का पूरा ताना- बाना सिर्फ इसी छोटे हिस्से को लेकर बुना जाना मुझे कहीं की अकलमंदी नहीं लगती. हाँ अगर महिला अधिकार की बात ही करनी है तो उनके लिए कॅरियर, सुरक्षा, शादी के बाद घर और नौकरी में सामंजस्य बिठाने वाली बात जरूर करनी चाहिए. क्योंकि आज की बदलती परिस्थितियों में इन चीजों की सख्त जरूर है. महिला अधिकार के नाम पर हम समाज में बने कुछ नियमों को तोड़ने की आजादी कैसे दे सकते हैं. आपको अपने आस-पास तमाम ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहां कुछ औरतें समाज के नियमों के विरुद्ध जा कर अपनी इच्छाएं पूरी करती हैं, लेकिन चोरी -छिपे. क्योंकि हमारे समाज में इन चीजों को मान्यता नहीं देने के पीछे तमाम कारण है. शायद कुछ गलत भी होंगे सारे नियम सही हैं मैं ऐसा नहीं कहती. मगर इन चीजों को बेवजह की दलीलों से जस्टिफाई नहीं किया जा सकता. अब गौर करने वाली बात ये भी है कि एक बाईस या चौबीस साल का लड़का जब इस फिल्म को देखेगा तो एक अधेड़ उम्र की महिला के प्रति उसका नजरिया क्या होगा. वहीँ उसके पड़ोस में रहने वाली किसी अकेली आंटी को प्रपोज़ करने का ख्याल उसके मन में क्यों नहीं आएगा.
अलंकृता की फिल्म को भी किसी न किसी कैटेगरी में प्रमाण पत्र मिल ही जायेगा. लेकिन एक दर्शक होने के नाते मन में कहीं न कहीं ये टिस उठती है कि क्या सच में ये फिल्में महिला अधिकार के लिए बनी हैं या सफलता और चर्चा में रहने का शॉर्टकट हैं. मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं हैं कि क्रिएटिविटी के नाम पर बॉलीवुड ने सामाजिक स्ट्रक्चर को तोड़ -मोड़ कर पेश करने का नया ट्रेंड शुरू कर दिया हैं. बोल्ड विषयों पर बनी फिल्में हमेशा उत्सुकता पैदा करती हैं इसीलिए बॉलीवुड की सारी क्रिएटिविटी आजकल इसी विषय में लगी हुयी हैं. ऐसा नहीं हैं कि इस विषय पर फिल्म न बने, लोग बात न करें, लेकिन अंत में समाज के लिए एक ऐसा मैसेज हो जिसे लोग फिल्म ख़त्म होने के बाद भी याद रखें.
आप 'पिंक' मूवी का उदहारण देख सकते हैं. हम उम्मीद करते है कि अलंकृता भी अपनी फिल्म से ऐसा ही कुछ उदहारण पेश करेंगी जिससे समाज को सीख मिल सके.
- विंध्यवासिनी सिंह
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