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रिश्तों की बारीक-बारीक तहें
सुलझाते हुए
उलझ-सी गई हूं,
रत्ती-रत्ती देकर भी
लगता है जैसे
कुछ भी तो नहीं दिया,
हर्फ-हर्फ
तुम्हें जानने-सुनने के बाद भी
लगता है
जैसे
अजनबी हो तुम अब भी,
हर आहट
जो तुमसे होकर
मुझ तक आती है
भावनाओं का अथाह समंदर
मुझमें आलोड़ित कर
तन्हा कर जाती है।
एक साथ आशा से भरा,
एक हाथ विश्वास में पगा
और
एक रिश्ता सच पर रचा,
बस इतना ही तो चाहता है
मेरा आकुल मन,
दो मुझे बस इतना अपनापन...
बदले में
लो मुझसे मेरा सर्वस्व-समर्पण....
साभार -वेब दुनिआ
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